Last modified on 30 मई 2011, at 16:28

स-सड़क / माया मृग


सड़क
दूर तक फैली हुई
सबके पास-सबके साथ
अकेली, उदास।
जब-जब भी
अभ्यतंर तपता है और
सिर पर बैठा
आग उगलता है
अहसासों की गरमी को गोला
बड़ी मुश्किल से
रोकथाम पाती है
रोम-रोम गिट्टियों को
बिखरने-से !
पिघलकर,
गाढ़े आँसू या चिपचिपाता है
वेदना की जलन में
फुंक कर काला हुआ कोलतार !
नंगे पांव चलो तो
महसूस कर लो
सड़क के भीतर से उकल आई
ठण्डेपन की भ्रांति को।
एक अकेला यात्री
सड़क का साथ पाने को
उसका दर्द पहचान
हौले-हौले पग रखता है-
पग उठाता है-
पग के उठने के साथ
निकलती सड़क की सिसकारी को
सिहर कर सुनता है !
चुपचाप चलता
सड़क के तमतमाते चेहरे को
देखता है-
सोचता है कि
आखिर सड़क यूं-इस तरह
सबको अपनी छाती पर से
गुज़र जाने का
रास्ता क्योंकर दे देती है ?