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हंस / जीवनानंद दास

बूढ़े पंख उल्लू के उड़ते हैं तारों की ओर
जल भरी घासों में डैने फड़फड़ाते हैं हंस
चन्द्रमा के इंगित पर ।
’साँय-साँय’ करते हैं शब्द — सुनता हूँ। बार-बार
एक-दो-तीन-चार अजस्र अपार ।

इंजिन की तरह करते हुए आवाज़ — रात की
पटरियों पर तेज़-तेज़ पंख उनके :
उड़ते हैं — उड़ते हैं वे रात में ।
रह जाता है आकाश तारों भरा,
रह जाती है गन्ध हंसों की — बाक़ी रहते हैं
कल्पना के हंस कुछ !

सहसा याद आता है चेहरा अरुणिमा सान्याल का :
आता है तैर — दूर कहीं छूटे हुए समय के
गाँव से — उभर कर ।

उड़ें उड़ें —
जाड़े की चान्दनी लिपी रात में
चुपचाप ; हंस कल्पना के !
उड़ते रहें — दुनिया की सारी आवाज़ें थम जाएँ जब,
शब्दहीन चाँदनी से भरे हुए मन में —
उड़ें गहरे ।

(यह कविता ’महापृथिवी’ संग्रह से)