एक यूरोपीय स्त्री के
भारतीय मन-तन का
नाम है हनिका।
नाम से डच
पर पहचान में इतर।
निष्पलक
खुली आँखों सुनते हुए
देखती है सर्वस्व
बहुत चुपचाप
निश्छल नदी की तरह।
हर एक उसकी आँखों में
देखता है अपना प्रतिबिम्ब
वह चौंकती नहीं है
किसी के आने-जाने से।
उसके कान
देखते हुए सुनते हैं सब कुछ
जैसे
उसकी आँखें सुनती हुई देखती हैं अहर्निश
सोचती है अक्सर
आँख न चाहते हुए भी
सब कुछ देखने को विवश
कान न चाहते हुए भी
सब कुछ सुनने को विवश
अगर ऐसे ही होते अधर
और बोलते रहते आत्मा की वाणी
अनवरत
तो सृष्टि का होता दूसरा स्वरूप।
दुनिया इतनी डरावनी नहीं होती तब
हर हालत में लोग नहीं रहते असुरक्षित।
सत्ता और भय की शक्ल
हथियार में नहीं बदलती।
आजादी का दूसरा नाम आतंक नहीं होता।
ताला और पहरा
सुरक्षा का पर्याय नहीं बनते।
औरत और आदमी के बीच
जन्मती विश्वास की संतानें
परिवार का हर सदस्य
देह का अंग होता।
देश-दर-देश में घूमती
उसकी आँखें
पृथ्वी की तरह घूम रही हैं चुपचाप।
प्रिय का हाथ थामे
परियों की तरह उड़ना चाहती है वह
देखना चाहती है वह
प्रेम से भीगी आँखें
जैसे प्रकृति के प्रेम में
रातभर में
भीग जाती है धरती
फूलों से चूती-टपकती है
ओस बूँद पराग के साथ
धरती का विलक्षण प्रेम-सुख
जीती है प्रकृति
प्रकृति की होकर
बहुत कम बोलते हुए हनिका
अपनी चुप्पी में बोलती है बहुत कुछ
खोलती है अनबुझे सवालों के जवाब
उसकी तरल और सरल आँखों से
करता है जब भी कोई संवाद।
हनिका रचाती है परिसंवाद की नूतन कला
शब्दों की नवीन व्यंजना
आँखों में सहेज रखी है सुहासी मुस्कराहट
और सुकोमल स्पर्श
जिसकी मीठी झनक सुनाई देती है
जब मिलाती है अपने प्रिय की आँखों से आँख।