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हमको चिंता / कुमार रवींद्र

घना कुहासा
पगडंडी पर राख झर रही
                हमको चिंता
 
पता नहीं कब
सूरज फिर से गीत लिखेगा
नई सुबह का
किया अँधेरा, सुनो, इकट्ठा
शाहों ने है
जगह-जगह का
 
सोनचिरइया आह भर रही
                 हमको चिंता
 
लाखों जतन किये
आँगन में धुआँ भरा था
नहीं छंटा वह
याद आ रहा हमें
सूर्यकुल का है किस्सा
साधो, रह-रह
 
जोत दिये की भी
चिताओं का ज़िक्र कर रही
                 हमको चिंता
 
बात पुराने संवत्सर की
सोच रहा दिन
नये साल का
आँधी-पानी से रितु जूझी
अब भी मौसम है
अकाल का
 
ड्योढ़ी पर
पतझरी हवा है पाँव धर रही
                   हमको चिंता