कितने कर्म-कुकर्म तुम्हारे
आँख मूंद कर हमने झेले
चूनर मैली
चादर मैली
किसे ओढ़लें, किसे बिछाएँ?
पूजाघर के गंगाजल पर
होने लगी
आज शंकाएँ
अन्धे भक्त
देवता गूँगे
हैं लम्पट वाचाल पुजारी
संस्कारों की कल्पलता पर
निर्ममता से चलती आरी
धर्मनीति को चाट रहे हैं
राजनीति के पले सपेले।
कामी-भ्रष्ट
धर्म-गुरुओं से
लज्जित पावन परम्पराएँ
तार-तार होकर आहत हैं
रिश्तों की
मधु मर्यादाएँ
बार-बार
लुटकर पिटकर भी
कहाँ चेतना जाकर खोई
रोज़
छली जा रही अहल्या
खुले केश
पांचाली रोई
भोग रहे अन्धों के वंशज
खेल
शकुनियों ने जो खेले।
30.8.2017