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हमशक़्ल / रवीन्द्र भारती

आते-जाते दिनों को अपने रंग में जो हैं रंगते
आवाज़ों के शोर में दबी
अनगिनत चीख़ें जिनमें पड़ती हैं सुनाई
वही जो सिर पर उठाए बारिश, आँधी, ठण्ड, लू —
दिखते हैं दूर-दूर तक
उनके लिए ही भीतर से जाकर, खुले में खोलकर द्वार
निकसकर थोड़ी दूर
उनकी पुतलियों में देखता है कोई अपना मुख
देखता है, देखता है, देखता ही रहता है....

उस देखने को देखता अदीखा-सा उन्हीं में मैं भी कहीं हूँ
और यह जो मेरी एवज में बोलता है —
है मेरा हमशक़्ल ।