Last modified on 28 अगस्त 2013, at 01:42

हमारी नाव / नरेन्द्र जैन

ये भाषा की थकान का दौर है
विचार और स्वप्न की मृत्यु
यहीं से शुरू होती है

कविता जैसी भी है जहाँ भी है
जितनी भी है
बस डूबी है अन्धकार में
सम्वाद आधे-अधूरे
गिरते लडख़ड़ाते हाँफते

बस, थोड़ा सा संगीत है कहीं
जाने कैसे वो भी बचा हुआ है निर्जन में
उसी किनारे बंधी है
हमारी जर्जर नाव