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हम-तुम हैं दो वृक्ष,बीच में / उर्मिलेश

हम-तुम हैं दो वृक्ष, बीच में
फैली यह सुनसान सड़क है,
जिस पर कभी हमारे मन का गुज़रा यातायात नहीं है।

हम न बने उपमान किसी के
खोज न पाए उद्यानों को,
संकोचों की भरी सभा में
सहते रहे भ्रांतिमानों को;
यमक बने पर किसी श्लेष का परिचय हमको ज्ञात नहीं है।

कभी बिहारी के दोहों के
हम अनुवाद नहीं हो पाए,
'भरे भौन' में सजल दृगों के
दो संवाद नहीं हो पाए;
आयातित मौन का अधर से हुआ कभी निर्यात नहीं है।

कुछ रूढ़ियाँ, अहं कुछ अपने
आगे आकर खड़े हो गए,
चढ़ी उम्र की धूप हमारे
साये छोटे-बड़े हो गए;
हर अस्पृश्य वियोग मिलन की पूछी हमने जात नहीं है।