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हरिविमुख-निन्दा / सूरदास


अचंभो इन लोगनि कौ आवै ।

छाँड़े स्याम-नाम-अम्रित फल, माया-विष-फल भावै ।

निंदत मूढ़ मलय चंदन कौं राख अंग लपटावै ।

मानसरोवर छाँड़ि हंस तट काग-सरोवर न्हावै ।

पगतर जरत न जानै मूरख, घर तजि घूर बुझावै ।

चौरासी लख स्वाँग धरि, भ्रमि-भ्रमि जमहि हँसावै ।

मृगतृष्ना आचार-जगत जल, ता सँग मन ललचावै ।

कहत जु सूरदास संतनि मिलि हरि जस काहे न गावै ॥1॥


भजन बिनु कूकर-सूकर जैसौ ।

जैसै घर बिलाव के मूसा, रहत विषय-बस वैसौ ।

बग-बगुली अरु गीध-गीधिनी, आइ जनम लियौ तैसी ।

उनहूँ कैं गृह, सुत, दारा हैं, उन्हैं भेद कहु कैसौ ।

जीव मारि कै उदर भरत हैं; तिनकौ लेखी ऐसी ।

सूरदास भगवंत-भजन बिनु, मनो ऊँट-वृष-भैसौं ॥2॥