ज़रुरी होता है चलते चलते
रुककर ठहरकर
अपने आस पास देखना
क्योंकि अक्सर ही छूट जाते हैं
हम जैसे लोग इस भीड़ में अकेले
रह जाते हैं शेष
कुछ साझे रास्तों पर
कुछ साझे क़दमों में!
हाँ ज़रुरी होता है
सच और सपनों के
बीच के फ़र्क को जानना
पहचानना परछाईयों को
अंधेरों में गुम होने से पहले
क्योंकि अक्सर ही
मुखौटों के पीछे पाये जाते हैं
स्वांग भरते कुछ किरदार
हमारे करीब के दृश्यों में,
रंगो में,रौशनी में!
और हाँ
यह भी ज़रुरी होता है कि
हम हों बेहद शांत, सुव्यवस्थित
उस विरुद्ध प्रश्नकाल में भी
और धीरे धीरे निगलते जायें
उन सभी शब्दों को
जो चाहते हों चीखना
हमें नये सिरे से परखना
क्योंकि आज नहीं तो कल
यही शब्द उठेंगे हमारे खिलाफ
और करेंगे हस्तक्षेप हमारे होने पर भी...