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हाइकु 127 / लक्ष्मीनारायण रंगा

पराये खांधै चढ
चावै बणनो आभो
रै‘सी बावनो


जे निरपेक्ष
क्यूं जपावै जग सूं
सहस्त्र नाम


धरा भेजे है
बादळी-परवाणां
आभै प्रेम नैं