पूछ कर तुम क्या करोगे
मित्र मेरा हाल।
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उम्र आधी मुश्किलों के
बीच हँस काटी।
पेट की खातिर उतरते
दर्द की घाटी।
पीर तन से खींच लेती
रोज़ थोड़ी खाल।
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कब हमें मिलती यहां
कीमत पसीने की।
हो गई आदत चुभन के
साथ जीने की।
इस उमर में पक गये हैं
खोपड़ी के बाल।
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दर्द को हम ओढ़ते
सोते बिछाते हैं।
रोज सपने दूर तक
हम छोड़ आते हैं।
जी रहे अब तक बनाकर
धैर्य को हम ढाल।
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आग खाते हम जहर के
घूँट पीते हैं।
रोज मरते हैं यहां हम
रोज़ जीते हैं।
बुन रही मकड़ी समय की
वेदना का जाल।