पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं
कहने को हम भी अफ़सर हैं ।
सौ-सौ प्रश्नों की बौछारें
एक अकेले हम उत्तर हैं ।।
इसके आगे,उसके आगे
दफ़्तर में जिस-तिस के आगे
क़दमताल करते रहने को
आदेशित हैं हमी अभागे
तनकर खड़ा नहीं हो पाए
सजदे में कट गई उमर है ।।
यों दधीचि की हैं सन्तानें
रीढ़ नहीं है अपने तन में
ऊपर से गांधी गिरमिटिया
भीतर भगत सिंह हैं मन में
काशी के दादुर भी पंडित
हम तो बस अछूत मगहर हैं ।।
उल्टी गंगा बहा रहे हैं
नये दौर के नये भगीरथ
जितना दूर चलें दिन भर में
उतना लम्बा हो जाये पथ
हम तो नाग सँपेरे वाले
हमसे नहीं किसी को डर है ।।
सारी प्रगति आँकड़ों तक है
बढ़ता पेट कर्मनाशा का
रोज़ देखना पड़ता हमको
होता चीर-हरण भाषा का
हर वैतरणी पार कराने
पूँछ गाय की, छूमन्तर हैं ।।