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हे महाजीवन. / सुकान्त भट्टाचार्य

हे महाजीवन, अब और यह कविता नहीं ।
इस बार कठिन, कठोर गद्य लाओ ।
मिट जाए पद्य-लालित्य की झंकार ।
गद्य के कठोर हथौड़े से आज करो चोट ।
चाहिए नहीं आज कविता की स्निग्धता ।

कविता आज तुझे छुट्टी दी ।

भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है ।
पूर्णिमा का चाँद जैसे झुलसी हुई रोटी है ।
  
मूल बंगला से अनुवाद : नीलाभ