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‘फ़ुरसत’ / रंजना गुप्ता

फ़ुरसत वाले ख़ाली से दिन
नींद भरे कुछ बासी से दिन..

कहीं घुमक्कड़ लम्हें चुप हैं
घने अंधेरे काले घुप हैं..
कहीं साँकलों की खट खट
तो कहीं आहटें भी गुपचुप हैं....

ऊब रहे बेचारे से दिन
आवारा बंजारे से दिन ....

किश्तों में रातें बँट जाती
नीदें तकियों में छुप जाती..
घोर उदासी उमड़ घुमड़ कर
बीच ह्रदय आकर धँस जाती...

क़िस्मत के बँटवारे से दिन
बेकारी के भारी से दिन...

नदी एक आँखों में बसती
मन के उद्गगम से जो बहती...
पलकों की सीपी में बूँदे
मोती बन बन करके ढलती..

सागर जितने खारे से दिन
थके थके हैं हारे दिन….