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32 / हरीश भादानी

बूढ़ी जवानी-सी खड़ी
चौहदियों में कैद
टूठ-जैसा बुत हमारा-
द्वार लगती
आहटों को सुन रहा है,
दो घड़ी
अनजान आव़ाजें रुका करती,
पूछा करती पड़ोसियों से
फुसफुसाती
सरसरी नज़र फेंके सरक जाती
और भीतर
रोटियों की महक में भरमें
कीड़े-मकोड़े
जोंक-से चिपके
हमारी पिंडलियों में गड़ते जा रहे हैं,
खून खाये जा रहे हैं
और दो-चार
आँखें पथराये पड़े हैं
क्षयरोग के बीमार-सी दबती,
धसकती नीवें देखे जा रहे
बिना औजार वाले कारीगर सरीखे हम !
सोचते हैं-
एक आंधी और आये
और बरखा
इस तरह झकझोर जाए
कि ढह जाये हवेली का बुढ़ापा,
ये पैबन्द वाली जालियां फट जायँ
सब खुला-खुला हो जाय-
हम आकाश ओढ़ें,
धरती को बिछायें,
धूप खा-
पीलें हवाएँ !