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34 / हरीश भादानी

मेरे मित्रो !
मेरी तुम्हारी मित्रता मात्र व्यक्तिगत नहीं
विचारों का पहलू लिये हैं,
यही पहलू मेरे लिये तुमसे
और मुझसे तुम सब के लिये
एक से अक्षर लिखाये जा रहा है,
एक ही पथ पर बढ़ाये जा रहा सबको;
मेरे मित्रो !
सलोना है, अमोली है मेरे लिये तुम्हारा स्नेह,
भिगोता है
अपनों-परायों से चोटिल हुए मन को,
कोसा है मैंने बहुत
अपनों-परायों को,
किया है उन्हें बदनाम अपने अक्षरों की जोड़ में;
ओ मेरे दो-चार मित्रो !
तुम भी तो कभी अनजाने ही
तीखे चाबुक फटक देते कि
मैं किसी क्षण रुकने सा लगा करता कि
पिछले दाग़ी पृष्ठ
फिर-फिर खोलने लगता,
मैं गुडूँ कि-
बाहों में भर कर आगे बढ़ा देता
मुझको तुम्हारा स्नेह !
मेरे मित्रो !
तोलता हूँ मैं-गये कल के
अपनों-परायों को,
उनसे जो कुछ भी मिला-उकसो,
तुम्हारे चाबुकों की मार से
उगरी खरोचों को;
शायद मेरी नग्नताएँ
या फिर तुम्हारी कुछ कुलीना आदतें ही
विवश कर देती तुम्हें
अहम् का चाबुक फटकने के लिये,
क्या करो तुम ?
रूप आखिर रुप है नवोढ़ा परिधियों का भी ?
मेरे मित्रो !
करूँगा अब न कोई भी शिकायत,
हल्की टीस भी उभरने न दूँगा,
क्योंकि तुम में भार ऐसा आ गया है-
पलड़ा एक तिल हिलता नहीं झुकता नहीं,
लो, मैं अपनी चुनिदा वक्रताएँ,
नग्नताएँ ले
किसी भी छोर तक तुम्हारे साथ हूँ
देखूँ कि-
कितना साथ देते हो, कि-
कितना साथ लेते हो ?