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50/ हरीश भादानी

ओ सलोने दर्द !
बहुत हो पीछे अलगा गये
खिलौने के लिये
हठिया नहीं,
तेरे कुनमुनाने को न्यौता समझ
छुपे-छुपे चलती हुई
यह याद की बदरी-
अजन्ता के जड़ाऊ चित्र-सी
फैली हुई मेरी आँखों में
बरसने को उतर आ जाएगी
और मेरी
दूरियों के पाँव चलती राह
धुंधला जायगी;
लाडले, सयाने दर्द !
मत खींच, मेरी सांस की चादर
सांस है आखिर
फट जायगी,
मेरे बुजुर्गो ने गहरी जड़ो से
भरमों की फसीलें को ऊँचा उठाया है
झरोखे मत बना इस में !
मेरी गृहस्थी की कुलीना लाज को
नज़र लग जायगी,
यह लाज-
वैदेही सती सीता-
जमी में गड़ जायगी
और मेरी जिन्दगी भी
धूप से बाजी लगाकर
नाचने लग जायगी
ओ, मेरे अनागत के विश्वास !
मेरे बोध ! मेरे दर्द !
खिलौनों से बहलाना छोड़,
रेंगना सीखा है जैसे
सीखले चलना भी अँगुली छोड़ कर !
तू उम्र से पहले सयाना हो
सलौने दर्द !
मेरे संस्कारी दर्द !
कन्धे से कन्धा मिला कर चल !