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क्या-कभी / रंजना भाटिया

क्या कभी शीशे के उस पार से
 झाँक कर देखा है तुमने
क्या कभी ख़ुद के अंदर जलते हुए
ख़्वाबों को देखा है तुमने...


क्या कभी हँसते हुए की आँखो में
आँसू देखा है तुमने
क्या कभी पानी से जलते हुए
शूलो को देखा है तुमने


क्या कभी बादलो में छुपे हुए
अरमानो को देखा है तुमने
क्या कभी सोते बच्चे की
बंद मुट्ठी को देखा है तुमने

क्या कभी कानो में तुमको
सदा सुनाई दी है किसी दिल
क्या कभी इन महफिलों में
तन्हा पड़े हुए फूलो को देखा है तुमने
क्या कभी हाँ ,अब बोलो
क्या कभी इस दिल की आँखो से मुझको देखा है तुमने?