Last modified on 30 जनवरी 2024, at 00:58

झील, नदिया, खेत, जंगल हो गए बादल / मधु शुक्ला

झील, नदिया, खेत, जंगल हो गए बादल ।
ज़र्द आँखों में हरापन बो गए बादल ।

ख़ूब उमड़े, ख़ूब घुमड़े, पर नहीं बरसे,
और जब बरसे, धरा को धो गए बादल ।

हो गए तन - मन लुटाकर, जब बहुत हल्के,
रुई से बिखरे हवा में खो गए बादल ।

लौटकर आए गगन से, जब थके - हारे,
सिर टिकाकर पर्वतों पर सो गए बादल ।

जब कभी पूछी कहानी, आग - पानी की,
मुस्कुराए, फिर छलककर रो गए बादल ।

इक पपीहे की अबूझी प्रीति की ख़ातिर
दर्द के कितने समन्दर ढो गए बादल ।

कह गए थे लौटने को साथ मौसम के,
फिर कहाँ लौटे, यहाँ से जो गए बादल ।