अंधकार का वक्ष चीरकर
फिर चमकेगा नवल प्रभात
अँधियारों की उजियारों से
जंग चली है आदि काल से
रात-दिवस में बीत रहे हैं
कितने जीवन कराह रहें हैं
हाथ बाँधकर सब कुछ चाहें
बैठ भर रहे ठंडी आहें
जीवन-लीला समझ ना पाएँ
कर्म बिना कैसे कुछ पाएँ
पाया है जब सुख का चंदन
दुःख के व्याल डराते क्यों मन
चाल हवा की रहे बदलती
कभी ठिठुरती कभी झुलसती
नदियों का जल घटता-बढ़ता
नहीं समान प्रवाह है रहता
जीवन भी नदिया की धारा
कभी पास, कभी दूर किनारा
मन में बसते सागर गहरे
उमड़-घुमड़ कर दुःख की लहरें
ले आएँगी सुख के मणिगण
होना मत मन तू उन्मन !
-0-