Last modified on 17 अक्टूबर 2012, at 13:33

अँगूठी / चंद्रभूषण

मुझे इसको निकाल कर आना था ।

या फिर चुपचाप पिछली जेब में रख लेता
बैठने में जरा सा चुभती, और क्या होता ।

किसी गंदी सी धातु के खाँचे में खुँसे
लंबोतरे मूंगे वाली यह बेढब अँगूठी
हर जगह मेरी इज़्ज़त उतार लेती है ।

एक नास्तिक की उँगली में
अँगूठी का क्या काम
वह भी ऐसी कि आदमी से पहले
वही नज़र आती है
जैसे ऊँट से पहले ऊँट का कूबड़ ।

अब किस-किस को समझाऊँ कि
क्यों इसे पहना है
क्या इसका औचित्य है
और निकाल कर फेंक देने में
किस नुक़सान का डर सता रहा है ।

प्यारे भाई, और कुछ नहीं
यह मेरी लाचारगी की निशानी है ।

एक आदमी के दिए इस भरोसे पर पहनी है
कि पिछले दो साल से इतनी ख़ामोशी में
जो तूफ़ान मुझे घेरे चल रहा है
वह अगले छह महीने में
मुझे अपने साथ लेकर जाने वाला था
लेकिन इसे पहने रहने पर
अपना काम पूरा किए बिना ही गुज़र जाएगा ।

इतने दिन तूफ़ानों में मज़े किए
आने और जाने के फ़लसफ़े को कभी घास नहीं डाली
लेकिन अब, जब खोने को ज़्यादा कुछ बचा नहीं है
तब अँगूठी पहने घूम रहा हूँ ।

एक पुरानी ईसाई प्रार्थना है-
जिन चीज़ों पर मेरा कोई वश नहीं है,
ईश्वर मुझे उनको बर्दाश्त करने की शक्ति दे ।

सवाल यह है कि
मेरे जैसे लोग, ईश्वर के दरबार में
जिनकी अर्जी ही नहीं लगती
वे यह शक्ति भला किससे माँगें ।

जवाब- मूँगे की अँगूठी से ।

प्यारे भाई,
तुम, जो न इस तूफ़ान की आहट सुन सकते हो
न इसमें घिरे इंसान की चिल्लाहट-
अगर चाहो तो इस बेढब अँगूठी से जुड़े
हास्यास्पद दृश्यों के मज़े ले सकते हो ।

मुझे इससे कोई परेशानी नहीं है ।

बस, इतनी सी खुन्नस ज़रूर है
कि इस मनोरंजन में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पा रहा हूँ ।