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अँधेरा / महेश वर्मा

अगर देखा जाए तो सबसे ज़्यादा जगह होती अँधेरे के ही भीतर।
कितनी आसानी से समा जाता हमारी धरती का आधा हिस्सा
उसके चौड़े सीने में।
उसी के भरोसे, उसी के भीतर छोड़कर उठ जाते हैं हम
अपने रात के दुःख, सुबह की पुकार पर, वहीं छिपा आते
अपना पिटा हुआ चेहरा या खरोंच लगी आत्मा।
अपने काले जीभ से चाटता छुरे की धार अँधेरा
धारण करता है अपने हृदय में हमारा आतंक। इसी में
किसी किनारे ढककर रखते हैं हम अपना भय, यहीं अगोचर
रिसता रहता ख़ून, इसी के लबादे में पोंछता है प्रेम अपने
आँसू, यहीं विसर्जित करने आते हम अपने उजड़े फूल।
दबे पाँव संकोच से अँधेरे का आना कि जैसे
क्षमाप्रार्थी हो घर न पहुँच पाए लोगों से। झींगुरों, वनपशुओं
और थकन के अनंत समुद्र के लिए कितना कोमल कि लेकर
आता नींद, लेकर आता जीवन।
कभी उस ओर से भी देखें उसका जहाँ उजाले
में नहीं खड़े होते हम और स्याह हुआ करता जब
आत्मा का भी रंग।