आग से आग के वीथि पर
अंगारे बिखरे हैं।
समय थोड़ा है
तलवों के छालों की
पीड़ा से परे हम
भ्रांति की ओर
बढ़ गए।
हम जानते हैं
आकांक्षा है जीवन विधान।
ज्ञानी चुप हैं
और देवता सो रहे
आराधित होने के संतोष में।
दर्शन और मीमांसा
कुछ स्पष्ट नहीं करते
केवल भाव हैं हमारे पास
तो हम क्यों न
ओंठ से ओंठ मिलाएँ।
मृत्यु हर दिन होती है
तो महाप्रयाण का
क्या भय?