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अंगिका मुकरियाँ-1 / सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर'

भाषा के ज्ञानी अलबेला,
कत्ते साथी कत्ते चेला।
अंग-अंगिका के चरवाहा,
के सखि सूरो? नै ‘कुशवाहा’।

कला-मंच के पंच अनोखा,
सबके लेली खिचड़ी-चोखा।
बाईस जिला अंग परदेश,
के सखि दिलवर? नै सखि ‘गुरेश’।

ऐथौं चकमक-चकमक लागै,
बोलै छमछम की-की गावै।
सब दिन सें घर-घर के गहना,
बुझल्हौ पायल? नै जी पहुना।

चटर-पटर खिस्सा गप मारै,
छलमल-छलमल खाट पसारै।
झटपट-झटपट जारोॅ चुल्हा,
की सखि समधी? नै सखि दुल्हा।

गम-गम गूड़ मिलाबोॅ आटा,
खाय-खिलाबोॅ कुछ नै घाटा।
रंग-अबीर, भांग के गोली,
की सिरपंचमी? नै सखि होली।