Last modified on 29 अक्टूबर 2018, at 03:57

अंतत: / सुकेश साहनी

उसने जला डाला
मेरा घास-फूस का घर
पर नहीं जला पाया
पैरों तले की धरती
और
सिर पर का आसमान
उसने लगवा दिए ताले
मेरे होठों पर
पर नहीं रोक सका मेरे
रोम छिद्रों से बहता पसीना
झल्लाकर
उसने काट डाले मेरे
हाथ और पैर
फिर भी डोलता रहा आसन
मेरे दिल की धड़कनों से
अन्ततः
उसने झोंक दिया मुझको
बिजली की भट्ठी में
पर नहीं छीन सका मुझसे
अंसख्य-असंख्य माँओं की कोखें