तुम मेरे बचपन की सखी थी 
कैशोर्य के मेरे तमाम सपने 
तुमसे शुरु होकर तिम तक खत्म होते थे 
एक गोधूली रात की नीरवता में 
और एक जंगल कुछ दूर जाकर 
बहुत बड़े निर्जन मैदान में बदल जाता था 
रात फिर ओस टपकाती सुबह में 
और चिलचिलाने लगती दोपहरी 
उन दोपहरियों में 
तुर्गनेव की नायिकायें याद आती थीं
और दूर देश के अजीब से रास्ते 
जंगल और झीलें
तप्त होठों से दिये गये वचन 
और खामिशियां
एक दिन तुमने पार कर ली 
बीस वसंतों की देहरी 
और अपने भीतर ही कहीं गुम गयी 
बरसों बाद लौटा परदेश से मैं 
तो पाया तुम्हारे पिता को तुम्हारे विवाह की चिन्ता थी 
तुम और भी सुंदर हो गयी थी 
पर तुम सिख नहीं पायी प्रेम करना 
तुम देखती थी गुमसुम
वसंत के खिलते फूल
और आसमान का छोर नापता चांद 
बचना था तुम्हें सपनों से 
प्रेम से, एकांत से 
तुममें जो एक झरना छिपा था 
बचना था उसके शोर से 
बचना था आषाढ़, फ़ाल्गुन और आश्विन से 
मैं तुम से क्या कहता 
किस मौसम की याद दिलाता 
किन महकती रातरानियों का जिक्र छेड़ता 
तुम्हारा हांथ थामे 
किन जंगलों में गुम होता
किन सपनों की कथा पूछता तुमसे 
जो वचन दिये ही नहीं गये 
उनकी कौन-सी यादें दिलाता ?
मैं चला आया 
पर्वत, नदी, वन 
रात और चांद पार करता
पार करता सपनॊं का नीलम देश 
उनींदी पहाड़ियां
गुलाल उड़ाते बादल 
और कोहरे में सोये गांव...
एक धुंधले मोड़ पर गुम हो गयी हैं
तुर्गनेव की नायिकायें
झील पर सिर्फ
अकेला बादल रह गया है 
मंडराता ...