किंकर्तव्यविमूढ़ सोचती हतप्रभ वासवदता
यह कैसा दुदैव ! बन गया बैरा पत्ता-पत्ता
परकाटे के भीतर शव ! हे भाग्य ! हुआ यह कैसे !
करट रही थी मैं यों ही दिन हा ! जैसे-तैसे
पहले ही दुर्भाग्य-धार में तरी पड़ी थी मेरी
क्या न परीक्षा नियति ले रही ओह ! कड़ी थी मेरी
यह प्रपंच, झूठा दोषारोपण, यह कैसा छल है !
दिखमा नहीं चतुर्दिक मुझको कोई भी संबल है
चारों ओर घृणा फैली है, जन-जन थूक रहा है
कोई नहीं सहारा अन्तर हो दो टूक रहा है
मूर्तिकार ! मर कर तुमने कैसा प्रतिशोध लिया है !
सरल सहज जीवन को क्यों ऐसा गतिरोध दिया है
चीख-चीख पूछना चाहती हूँमैं सारे जग से
भला किसलिये संधि करूँगी मैं हत्या के अघ से
शिल्पी की आँखे मुझ पर प्यार उँडेल रही थीं
नहीं मूर्ति से, उसकी उँगली मुझ से खेल रही थी
फिर मैं क्यों उसको मारूँगी, वध मैं क्यों चाहूँगी
क्यों निज के ही हाथों निज पर ज्वाला बरसाऊँगी
जहाँ अहिंसा व्याप्त चतुर्दिक, चींटी तक रक्षित हो
हत्या-सा जघन्य अघ सपने में न जहाँ लक्षित हो
कौन सुनेगा मेरी, साक्षी कौन सत्य का होगा ?
जग में कौन दूसरा जिसने यह मुझ-सा दुख भोगा ?
अंधकार, हा, अंधकार है कही न विभा किरण है
निश्चित वणिकों के ही हाथो मेरा लिखा मरण है