बिदा देती एक दुबली बाँह सी
यह मेड़
अँधेरे में छूटते चुपचाप
बूढे पेड
ख़त्म होने को न आएगी कभी क्या
एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह?
एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी
यह सफ़र की प्यास, अबुझ, अथाह?
क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे
ऊँघते क़स्बे, पुराने पुल?
पाँव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी
बींध देगी क्या मुझे बिलकुल?