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अंतिम थाली में हमने शून्यता परोस ली / ज्योति रीता

हमारे हिस्से की नदी को सूख जाना था
हमारे हिस्से के जंगल को ख़ाक हो जाना था
हमारे हिस्से के फ़िक्र को धर्मशाला होना था
हमारे हिस्से का प्रेम बेवा है

हमारे हिस्से के घाव लाईलाज थे
हमारे चेहरे का धब्बा जन्मजात था
हम ढीढ हुए / अरसा पहले हुए
हमारे पंखों को सबके सामने नोचा गया
चील कौवे की तरह हमें तरेरा गया

खैराती पान सुपारी की तरह हमें चबा-चबा कर थूका गया
हमारा स्वाभिमान मिट्टी का ढेला था
हम कोरस में गाए जाने वाले गीत थे
हम मकतब में दिये जाने वाले संस्कार थे

हमें मक़बूल करने से पहले कई-कई चरणों में आज़माया गया
चिऊड़ा, चिक देकर हमें विदा किया गया
हमारे हिस्से की सहेलियाँ को मूक-बधिर हो जाना था
विदाई करते हुए गाँव की तमाम औरतें बिरहा गीत गा-गाकर रोती रहीं

रात-रात भर हम सोई नहीं
अपराधी की तरह कह दिया था घुटन अपनी
सरसरी निगाह से हमें देखा गया
रतजगे के बाद अल सुबह हमें रसोई में हमारी नियति समझाई गई
 
तकियो के बीच हमारा अपना ठिकाना था
अंतिम थाली में हमने शून्यता परोस ली
हमारे हिस्से में लौटना शब्द उपयुक्त नहीं था॥