हे महाकवि व्यास!
आपके महाकाव्य ‘महाभारत’ के अंतिम अंश को
मैं-कलियुग का एक अदना सा कवि,
किंतु आपका मानस पुत्र-बदलना चाहता हूं।
कारण?
हे महर्षि!
आपने लिखी थी युद्ध की यह गाथा
राजतंत्र के दमघोंटू माहौल में
और मैं चाहता हूं इस अद्भुत कथा को
फिर से कहना लोकतंत्र की खुली हवा में।
हे युगद्रष्टा!
सुनिए, नए पाठ का अंतिम अंश-
सहसा गलने लगी युधिष्ठिर की देह बर्फ में
चिल्ला उठे
एकमात्र साथी श्वान की ओर देखकर,
हतप्रभ, वे!
”मैं धर्मराज भी?“
”हां वत्स, तुम भी!“
श्वान की जगह खड़े एक देवपुरुष ने कहा-
”मैं धर्मराज हूं।“
युधिष्ठिर ने पूछा (हाथ जोड़कर)-
”मेरे अवसान का कारण?“
धर्मराज ने तीखे स्वर में पूछा-
”द्रौपदी के चीरहरण और
दासी सैरंध्री के अपमान के साक्षी
और दास कंक के अपमान के भुक्तभोगी!“
”हे नरश्रेष्ठ! जवाब दो।
क्या तुम्हरे राज्य में-
प्राप्त था स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी का दर्जा?
हो पाई थी समाप्त दास प्रथा?“
झुका लिया सिर कुंतीपुत्र ने
और शर्मसार मैंने भी!