अँधकार में चली गई है
काली रेखा
दूर-दूर पार तक ।
इसी लीक को थामे मैं
बढ़ता आया हूँ
बार-बार द्वार तक ।
ठिठक गया हूँ वहाँ :
खोज यह दे सकती है मार तक ।
चलने की है यही प्रतिज्ञा
पहुँच सकूँगा मैं
प्रकाश के पारावार तक;
क्यों चलना यदि पथ है केवल
मेरे अंधकार से
सब के अंधकार तक ?
-या कि लाँघ कर ही उस को
पहुँचा जावेगा
सब-कुछ धारण करने वाली पारमिता करुणा तक-
निर्वैयक्तिक प्यार तक ?