धरती के नापाक पशुओं से
घिरी मैं अपहृता हूँ
अपहृता या बिथा कथा
कुछ भी कहो
क्या फर्क
पड़ता है
चाहते हो
जानना ग़र नाम मेरा
तो सुनो...
मैं जुबेदा हूँ किसी रहमान की
माधवी हूँ मैं किसी मृगांक की
विश्वविद्यालय की मैं मायरा नामी
छात्रा हूँ
सिल्हट की
सलमा, सकीना
राजशाही
में मरे किसी लाल की जननी हूँ मैं
मैं ज्वाला हूँ, कावेरी नाम मेरा
मैं गुलेराना, तबस्सुम नाम मेरा
गोल्डा हूँ मैं, मरियम नाम मेरा
मैं भवानी हूँ सरबजीत नाम मेरा
सैकड़ों हैं नाम-असली नाम मेरा
अपहृता-बस अपहृता है नाम मेरा
मूंद कर बैठे रहें ‘वे’ नयन
‘वे’ बने जो शान्ति के ठेकेदार
अमन के हैं रहनुमा जो
राजनीति के
खिलाड़ी शानदार
हाय! घिनौने दाँव पेंच!
लोलुप राष्ट्रों के लपलपाते
दो मुँही साँप
लीलने को
तन मेरा जुट गये
छीलने-
को देश मेरा जुट गये
न सुनें ‘वे’ दास्तां मेरी
मैं विश्व की नारियों से
दास्तां अपनी कहूँगी
आह्वान करती हूँ जगत की
शक्तियों का मैं
मैं-मैं नहीं मेरा प्रेत है
बहनों! मेरी माताओं!! मेरी बेटियों!!!
रोंगटे सबके खड़े कर देगा मेरा प्रेत
सबकी पुतलियों में प्रतिबिम्बत
करके बर्बर, वहशियों के नाच को
सुन सखि, एक दिन मैं गा रही
थी एक सुन्दर गीत
छात्रावास के
सुशान्त कक्ष में कि-‘‘धाँय!धाँय!!
धम-धमाका, शोर-चीखें!!
गड्डमड्ड सब हो गया
बूट ठोंकते
वे दरिन्दे आन पहुंचे कक्ष में
बाज का सा वह झपट्टा क्या कभी
कोई भूल सकता है
गले में फँस
गई चीखें, आँख में जम गया पानी
और मैं लुट गई
लुटती रही; लुटती रही-फिर मर गई
और सुन, मेरी माँ!
एक दिन मैं गोद में ले ‘लाल’
बैठी थी
दूध पीता ‘लाल मेरा
और प्रिय मेरा-शिशुअलक में
उंगली घुमाता
ताकता था
स्नेह से
कि शोर करते, गरजते
और धड़धड़ाते ढोर घुस आये
ढोर थे या चोर थे; मेरे पति को
ले चले घसीट कर
जब मैं
चिल्लायी-लाल मेरा खींचके
उछाल फेंका हवा में बड़े जोर से
फाड़ डाले वस्त्र मेरे
नोच डाले अंग
और
जिस तिस के संग....
तड़फड़ाते शिशु को संगीन
की जब नोक पर रख
एक झंडे की तरह ऊपर
उठाते थे, मेरा कलेजा
दरकता, मैं चीखती, दो-चार कुत्ते
झपटते थे और मुझको नोंचते
थे, पीसते थे। और फिर मरी
मुझको ‘वे ले गये थे शिविर
अपने में
माँ! हर किसी
की हवस का मैं ग्रास बन गई थी
और सुन, बहना, सुनाऊं
जुल्म की और जब्र की मैं
दास्ताँ तुमको। बम-धड़ाके गोलियों
के शोर में संत्रस्त हो सब बैठे
रहते अपने-अपने कोटरों में।
बीमार, मेरा बाप बूढ़ा, मैं
उसे चावल खिलाती थी-कि
लग गई आग चारों ओर-कि ‘वे’
कुत्ते, कमीने, पाप के पुतले
हवा में ज़हर भरते
आन धमके झोंपड़ी में
काँपते, मेरे बाप की दाढ़ी पकड़ कर
चकर घिन्नी सा घुमाकर, दूर
अति, जा दूर पटका। चीख ही
बस गूंजती रह गई मेरे कान में
और तारे नाच गये पुतलियों के सामने
फिर मुझे कुछ सुध नहीं।
किस किसने रौंदा, किसने कुचला
और कितने ही जनों की वासना को
तृप्त मैंने कर दिया
आँख जब खोली तो पाया अनगिनत
लाशों के बीच
चील, कौये, गिद्ध गीदड़
आ जुटे थे। नोचते थे बोटियाँ उन
मृतजनों की, वहशियों की गोलियों
ने भूल डाला था जिन्हें
सामने थे रक्तरंजित पाट
‘नदिया’ के
कि जिसमें खून बहता था
मेरे बन्धुजनों का
और मेरे
देा के अनगिनत बच्चे, बेटियाँ
निर्वसन हो, चिथड़ी हुई, कुचली हुई
वीरान सड़कों पर पड़ीं चुपचाप
लेटी थीं
धज्जियां मेरी उड़ीं
अस्मतें मेरी लुटीं
उजड़ गए जिंदगी के हरित-रूपम-वन
और ‘वे’ सब ‘वे बड़े’ सब देखते रहे
अपने दखल को टालते रहे
न सुने ‘वे’ दास्तां मेरी
पर विश्व की नारियों! तुम तो सुनो
सुनो मेरी ध्वस्त अस्मत की जरा
पुकार तो सुनो
जूझते जनतंत्र
की हुंकार तो सुनो
आदम के बहते
लोहू की ललकार तो सुनो
नारियो, जागो ज़रा, आँख तुम खोलो ज़रा,
शक्तियाँ तोलो ज़रा
समवेत स्वर बोलो ज़रा
नुच गई इस देह में बस शेष दो आँखें
अभी भी चमकती हैं, जिन्हें इन्तज़ार
उप पावन घड़ी का
जब जगेगा शिव पापघट रीत जायेगा
नई सुबह होगी अंधेरा बीत जायेगा