अधनंगा ज़िन्दगी को घसीटता
किनारे पड़ा जीव
शायद मानव
दैयनीय, लुंज-पुंज, असहाय
देखता न कोई उसे
अपने से फुरसत कहाँ किसे
न अपनी गली की
न गाँव की
न देश की
चिंता है कहाँ किसे
न समझाने को कोई, न बताने को
इन मानवों औ’ गलियों से ही भारत
ए सुन और उठ
इनकी बहुमूल्यता तू जान
आख़िर कब तक
यूँ निकालते रहेंगें हम
स्वतंत्रता दिवस पर मात्र विशेषांक