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अउर का / कुमार वीरेन्द्र

अक्सर देखता
बाबा को चलते-चलते राह-डरार से
बतियाते; कहीं करहा में, हरी दिख जाएँ दूबें, उन्हें छूते, हालचाल पूछते; लौटते
बखत कवन-कवन तो दिशाओं को प्रणाम करते; खेतों से कहते, 'ठीक है, भाई
धेयान रखना, अब त काल्ह भेंटेंगे'; कबहुँ जब बरखा होती
मत पूछिए, उससे छपक-छपक, हँसी-मज़ाक़
करते; नदी जाते, हाथ जोड़
खड़े हो जाते

मैं तो टेल्हा-टहलुआ, देखता, चटपट नक़ल करता

कभी-कभी देखता
बगीचे में जब पेड़ों को अँकवारी में ख़ूब भर लेते
मचान पर पालथी मार बैठ जाते; और चिरइयों के खोंते देख-देख, गजबे मुसकाते; मैं भी
खोंते देख, इसलिए मुसकाता, कि बाबा मुसका रहे; पूछता तो कहते, 'अरे, ई सब बचवन
को देखो कइसे चहक रहे, मन तो हरियाएगा ही न...'; फिर जो भी बह रही
होती हवा, बाबा की लगुआ ठहरती, तनि खैनी दबा, झूम
झूम, गवनई शुरू कर देते, दूर तलक जो
सुनते, पोरे-पोर सराबोर
हो जाते

कबहुँ ऐसा, उधर हल चल रहा, इधर जोताए खेत में

उठक-बैठक कर
रहे होते, अपनी देह तो माटी मलते ही, मेरी देह
भी मलते, फिर कहते, 'आ जा पाठा, एक पकड़ हो जाए, और, एक पकड़ कौन कहे
कई पकड़ लड़ता, बाबा हर बार चित कर देते, लेकिन बाबा तो अजबे बाबा, आख़िर
में कइसे तो पटका जाते, पीठ थपथपाते कहते, 'वाह रे मरदे, ई
बुढ़वा को तो पछाड़ ही दिया, रे मरदे...'; और जब
नदी नहाने जाते, कान्हे बैठा लेते
कि कुश्ती में हार जो
गए थे

बान्ध से धीरे-धीरे
नाहीं उतरते, सँभलते तनि दउड़ जाते
कहता, 'अरे ढिमला जाओगे, भाई, अउर देखो घाव लगेगा, मुझे मत कहना
कि मना नाहीं किया', बाबा हंसते, कह पड़ते, 'अरे यार, तोहे दोस काहे दूँगा
अउर मैं गिरूँगा काहे, ज़मीन पर थोड़े न हूँ, मैं तो उड़ रहा
हूँ', पूछता, 'चिरईं जइसन ?', अपनी बाँहें
पाँख जस फहराते, लहराते
कहते, 'अउर का

तो अउर का...!'