ये वो किस्सा है जिसमें घुस के रात सोती है
ये वो किस्सा है जिसमें दिन को छाँव मिलती है
ये वो किस्सा है जिसमें हमको तुमको मिलना था
ये वो किस्सा है जिसमें अब कोई किरदार नहीं
ये वो किस्सा है जिसे जानता बच्चा-बच्चा
न कोई फिर भी इसे कर सका बयाँ अब तक
कथा कहते ही कथा रूप बदल लेती है
भाव तक आते-आते भाव भटक जाते हैं
ये कथा कहना है, कहनी को रूई-सा धुनना
दो चरन चल के कथा खुद में बिलम जाती है
साथ में साँस भी संसार की थम जाती है
ये कथा सुनना है, अनहद के मौन को सुनना
ये वो किस्सा है जिसका कोई ओर-छोर नहीं
न कोई रंज-ओ-मलाल
न कोई रंग-ओ-जमाल
ये वो रचना है जिसका कोई तुक-ओ-ताल नहीं
इसी किस्से का लगा कर तकिया
विरह की रात में हम रोते हैं
इसी कथा की सजा कर सुहाग-सेज सखी
मिलन की रात में हम खाते हैं....