अक़्ल के दुश्मन
बहुत बल खा रहे ।
भंगिमा के कोढ़ पर
रूमाल डाले ।
निकल जाते हैं बग़ल से
गन्ध छोड़े बात वाले ।
कनखियों से सूँघ कर हम भाँप लेते
अदाओं पर किस कदर इतरा रहे ।
भरोसे,
फरफन्द से ऐसे निबाहे ।
आँकड़ा छत्तीस का ले
मिल लिए गाहे-बगाहे ।
ले अहम् की भुरभुरी अड़, धोंस - धुप्पल
मियाँमिट्ठू खूब हाथ नचा रहे ।
इन्हें मालूम है
दुखान्त / सुखान्त गति का ।
इसी गफ़लत को
धड़ल्ला मानते हैं मूढ़ मति का ।
भूमि से, जन से, कटों की सिर्र देखें
आरसी इहकाल को दिखला रहे ।
अक़्ल के दुश्मन
बहुत बल खा रहे ।