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अकाल से लड़ता कमासिन / केदारनाथ अग्रवाल

अकाल से लड़ रहा है
मेरा गाँव
कमासिन
जहाँ मैंने
आदमी का जन्म पाया
आदमी की महत्ता जानी
जिसने मुझे दिया
सब कुछ
सब कुछ
जिसे मैंने
कुछ न दिया
यह लड़ाई
खून की नहीं
पेट न भर सकने की लड़ाई है
यह लड़ाई
सब लड़ाइयों से बड़ी
निर्दोष जी सकने की लड़ाई है
इसे लड़ते हैं

आदमी और पशु
दोनों एक साथ
जहाँ दोनों बराबर हैं
प्राकृतिक गम के स्तर पर

यह लड़ाई
न पाप की लड़ाई है
न अधर्म की
यह लड़ाई अन्न की लड़ाई है
जो कहर बनकर आई है

उम्र में बड़ा मेरा गाँव
अब भी मोहताज
जुगजुगा रहा है
जैसे दिया
रात की लड़ाई में
न मरने के एहसास से
जिंदगी के विश्वास से

मैंने देखा
-जो न देखा था-
आज से पहले कभी-
मेरा गाँव
भूखा गाँव
अनाज के इंतजार में
डूबते सूर्य से
न डूबने की याचना कर रहा है
लेकिन सूर्य न रुका
और
रात ने ढँक लिया
अपने अंधकार से
मेरे गाँव को

रचनाकाल: २९-०७-१९६७