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अक्सरहाँ ही / जोशना बनर्जी आडवानी

कितनी ही जगहो से
टटोला जा सकता था प्रेम

सपने गिनने वाली कम
पड़ती उँगलियों से
मादा मधुमक्खी की
चालाकियों से
पानी पीते पीते अचानक
लगे ठसके से
पुरानी जींस की कमर में
फँसे युवावर्षो से
पृथ्वी के बाहर निकलते
किसी गुप्त रास्ते से
छतरी के नीचे बहती
दो आँखो से
बनिये के बूँढे़ होते
बहीखाते से
बारिष मे भीगते दो
कबुतरो से
ट्रामो के सबसे आखिरी
सीटो से
क्रोछ मे बढ़ते हुये हठी
रक्तचाप से
छोटे बच्चे के माथे के
अन्दर वाले ब्रह्माण्ड से
पच्हत्तर प्रतिशत अटैन्डैन्स
के बचे हुये दिनो से
कहानी के उस आखिरी खण्ड
से जिसमे लड़की तलाक लेती है
नक्शे पर सरहद पार बहती
नीली लकीरो से

ऐसा नही कि हम सब बहरे हैं
पर प्रेम की कोई मातृभाषा नही
टटोले जाने की क्रिया आसान नही
प्रेम को समझने से संजीदा कुछ भी नही