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अक्स अपने आइने का / कुमार रवींद्र

उठो शाश्वत !
रात बीती
वक़्त है यह जागने का

हाँ, सुनो तो
नीम पर कौव्वा
किसी से लड़ रहा है
उधर तोता
कुछ अधूरे मंत्र पिछले
पढ़ रहा है

नए युग के
मंत्र क्या हैं
समय है यह जानने का

आओ, देखो
यह गिलहरी
कहाँ चढ़ती जा रही हे
उधर मधुमक्खी
अनूठे कैक्टस के फूल पर
मँडरा रही है

धूप में कैसा
सुनहला दिख रहा है
घर हमारे सामने का

यहाँ देखो
लॉन पर कैसे बिछे हैं
हरे मोती
यहीं पिडुकी है गुलाबी
चुग रही जो
झरे मोती

दिप रहा है
सूर्य जैसा
अक्स अपने आइने का