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अगन पीर की पी तभी तो जली हूँ / रंजना वर्मा

अगन पीर की पी तभी तो जली हूँ।
कभी खिल न पाये चमन की कली हूँ॥

सिया को चुराकर दशानन था लाया
मची तब जो लंका में वह खलबली हूँ॥

जिसे छोड़ कर साँवरा सुख न पाया
वही भूप वृषभानु की मैं लली हूँ॥

घुली प्रीति बन कर रगों में तुम्हारी
प्रणय की सुधा मैं वह मिश्री डली हूँ॥

कभी तो पुकारोगे अपना समझकर
यही सोच कर गेह से मैं चली हूँ॥

बहुत जी लिए साँवरे बिन तुम्हारे
तुम्हारा विरह जाम पी कर पली हूँ॥

नहीं यह जमाना भरोसे के काबिल
गयी हर किसी से जहाँ में छली हूँ॥