गूँज रही हैं चारों ओर
झींगुरों की आवाज़ें ।
तिलचट्टे फदफदा रहे हैं
अपने पंख ।
जारी हैं अभी भी नपुंसक विमर्श ।
कान मत दो इन पर ।
चिन्ता मत करो ।
तुम्हारे सधे क़दमों की धमक से
सहमकर शान्त हो जाएँगे
अन्धेरे के सभी अनुचर ।
जियो इस तरह कि
आने वाली पीढ़ियों से कह सको —
‘हम एक अन्धेरे समय में पैदा हुए
और पले-बढ़े
और लगातार उसके ख़िलाफ़ सक्रिय रहे’
और तुम्हें बिल्कुल हक़ होगा
यह कहने का बशर्ते कि
तुम फ़ैसले पर पहुँच सको
बिना रुके, बिना ठिठके ।
मत भूलो कि देर से फ़ैसले पर पहुँचना
आदमी को बूढ़ा कर देता है ।
जीवन के प्याले से छककर पियो
और लगाओ चुनौती भरे ठहाके
पर कभी न भूलो उनको
जिनके प्याले ख़ाली हैं।
आश्चर्यजनक हों तुम्हारी योजनाएँ
पर व्यावहारिक हो ।
सागर में दूर तक जाने की
बस, ललक भर ही न हो,
तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी ही होनी चाहिए
एक खोजी यात्रा ।
सपने देखने की आदत
बनाए रखनी होगी
और मुँह-अन्धेरे जागकर
सूरज की पहली किरण के साथ
सक्रिय होने की आदत भी
डाल लेनी होगी तुम्हें ।
कुछ चीज़ें धकेल दी गई हैं
अन्धेरे में ।
उन्हें बाहर लाना है,
जड़ों तक जाना है
और वहाँ से ऊपर उठना है
टहनियों को फैलाते हुए
आकाश की ओर ।
सदी के इस छोर से
उठानी है फिर आवाज़
‘मुक्ति’ शब्द को
एक घिसा हुआ सिक्का होने से
बचाना है ।
जनता की सुषुप्त-अज्ञात मेधा तक जाना है
जो जड़-निर्जीव चीज़ों को
सक्रिय जीवन में रूपान्तरित करेगी
एक बार फिर ।
जीवन से अपहृत चीज़ों की
बरामदगी होगी ही एक न एक दिन ।
आकाश को प्राप्त होगा
उसका नीलापन,
वृक्षों को उनका हरापन,
तुषारनद को उसकी श्वेतमा
और सूर्योदय को उसकी लाली
तुम्हारे रक्त से,
अगर तुम युवा हो ।