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अगर मैं भी / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

अगर मैं भी तुम्हारे रूप का जादू लखा होता
अगर मैं भी तुम्हारे होंठ का आसव चखा होता
अगर मैं भी तुम्हारे केश-बादल के तले सोता
अगर मैं भी तुम्हारे नैन का काजल बना होता

रचा होता प्रणय के देवता का गीत मैं भी तो।
बना होता विवसना मूर्ति का मनमीत मैं भी तो॥

अगर आश्रय तुम्हारी बाहु-माला का मिला होता
अगर शतदल कहीं उर का तुम्हारे भी खिला होता
जगी होती कभी मन की दबी चिर प्यास की लेखा
कहीं उभरी हुई होती क्षितिज के पार की रेखा

सही मानो सुना होता अमर संगीत मैं भी तो।
बना होता विवसना मूर्ति का मनमीत मैं भी तो॥

अगर तुम भी ऋचाएँ प्रेम की पढ़ती रही होती
अगर तुम भी घरौंदे नेह के गढ़ती रही होती
अगर मैं भी तुम्हारे स्वप्न में आया कभी होता
अगर मैं भी मिलन के गीत को गाया कभी होता

लखा होता समर में प्यार के शुभ जीत मैं भी तो।
बना होता विवसना मूर्ति का मनमीत मैं भी तो॥

अगर होता कहीं दर्पण जवानी का तुम्हारे तो
अगर होता कथानक मैं कहानी का तुम्हारे तो
किसी मधुवन में मैं भी रास मोहन-सा रचा होता
कहीं सन्देश बादल के करों में भी बचा होता

पढ़ा होता किसी विरही नयन का प्रीत मैं भी तो।
बना होता विवसना मूर्ति का मनमीत मैं भी तो॥