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अगर हमसे मुहब्बत की ये नादानी नहीं होती / गिरधारी सिंह गहलोत

अगर हमसे मुहब्बत की ये नादानी नहीं होती।
कसम से फिर हमारे दिल की क़ुर्बानी नहीं होती।

मुझे लगता यक़ीं तुमको नहीं मेरी मुहब्बत पर
अगर रखते रक़ीबों पर नज़रसानी नहीं होती।

शरारत छेड़खानी तंज़ कसना है अदा तेरी
मगर अच्छी कभी दिल से ये शैतानी नहीं होती।

जनम से साथ रहते हैं हमेशा ग़म मेरे घर में
है मेरी ज़ीस्त का हिस्सा तो हैरानी नहीं होती।

उठाते बोझ कुनबे का न शानों पर अगर अपने
हमारी भी शिकनयफ़्ता ये पेशानी नहीं होती।

अगरचे इश्क़ की परवाज़ हम दोनों नहीं करते
न कोई बादशा होता कोई रानी नहीं होती।

हमारे मुल्क की तहजीब का पालन अगर करते
लिबासों की समाजों में ये उर्यानी नहीं होती।

नहीं अख़लाक़ सीखें गर किसी भी क़ौम के तालिब
कहीं दुनियाँ जहाँ में फिर क़दरदानी नहीं होती।

मुहब्बत का हसीं ज़ज्बा कभी का ख़त्म हो जाता
खुदा की गर 'तुरंत' हम पर मेहरबानी नहीं होती।