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अग्नि- परीक्षा / रश्मि विभा त्रिपाठी

18
तुम सँभालो
साँसों का ये सितार
खण्डित तार-तार
कान्हा मैं चाहूँ
वंशी की रसधार
डूबूँ, उतरूँ पार!
17
घट-घट के
अधिवासी केशव
सुमिरूँ, तरूँ भव
तुम्हीं से पाया
जीवन का उद्भव
मैं थी केवल शव!
18
औरों से मिला
नाम मुझे पगली
निश्चलता की गली
श्रीकृष्ण की ही
निष्ठा पर मैं चली
नाग-नथैया, बली।
19
भाव-भक्ति का
घिस रहा चन्दन
मन मेरा मगन
श्रद्धा का ध्येय
श्री धाम वृंदावन
साँवरे का दर्शन।
20
मेरा जीवन
तुम्हारे ही हवाले
तुम ही रखवाले
उन्मुक्त करो
तोड़ो पिंजर-ताले
आओ मुरली वाले।
21
घुमड़ रहे
दुख-बादल काले
मन को तू बचा ले
बहा दे सुर
अधरों से निराले
ओ मुरलिया वाले।
22
अधर्म का ही
बढ़ता अत्याचार
मचा है हाहाकार
हे कृष्ण! करो
निरीह का उद्धार
लो पुन: अवतार।
23
भरी मटकी
नन्ही-नर्म हथेली
छींके से जा धकेली
बाल गोपाल
तुम्हारी अटखेली
अनबूझी पहेली।
24
चले आते हैं
वे जिसके भी पास
बँधा देते हैं आस
सदा स्वच्छंद
मन रचाए रास
श्रीकृष्ण का जो दास।
25
ईश सँभालो
तुम सारा प्रबन्ध
रखो मुझे निर्बंध
लिखती रहूँ
जीवन का निबंध
होके पूर्ण स्वच्छंद।
26
कभी हो इति
विप्लव के गान की
दुख, अपमान की
अग्नि-परीक्षा
अरण्य में प्राण की
राम! रोए जानकी।
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