बैठे हों जब
किसी लॊन में
हरी दूब पर
अनायास ही चली जाती है हथेली
सर पर
तो अंगुलियां पगडंडी बनाकर
घुस जाती है बालों में
किंतु अहसास नहीं होता
उस गर्माहट का
न ही वह नरम लहजा
और में डूब जाता हूं गहरा
तुम्हारी यादों के समुद्र में।
मूल राजस्थानी से अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा