अच्छी तरह याद है मुझको-
मेरे द्वारों पर मुश्किल दिन
आए नहीं कभी भी कहकर।
आते भी कहकर तो उनका,
निपट निहत्था क्या कर लेता?
जीवन की इस विकट दौड़ में,
होते तब भी वही विजेता।
खुदा बाप होता मेरा तो-
बात और ही होती अपनी।
समय निकलता तनिक सहमकर।
गिने-चुने ही हैं सूची में अच्छी-भली कै़फियत वाले,
ज़्यादातर मुश्किल ही आए, ज़ालिम करख शख्सियत वाले।
इनका भी आभारी हूँ मैं-
रगड़-रगड़ कर माँजा-धोया-
लिए मजे़ हमने चख-चखकर।
जहाँ-तहाँ उछरी है छापें, कहीं दरारें, कहीं खरोंचें,
कहीं लगे पक्षाघातों से, कहीं आ गए जैसे मोर्चे;
दुश्मन से भी बदतर हैं ये
हमसाया हमशक्लों-से दिन-
निकल गए, मुझमें से बहकर।