एशिया के दूर उफ़्तादा शबिस्तानों में भी
मेरे ख़्वाबों में कोई रूमाँ नहीं !
काश इक दीवार-ए-ज़ुल्म
मेरे उन के दरमियाँ हाएल न हो !
ये इमारात-ए-क़दीम
ये ख़याबाँ ये चमन ये लाला-ज़ार
चाँदनी में नौहा-ख़्वान
अजनबी के दस्त-ए-ग़ारत-गर से हैं
ज़िदंगी के इन निहाँ-खानो में भी
मेरे ख़्वाबों का कोई रूमाँ नहीं !
काश इक दीवार-ए-रंग
मेरे उन के दरमियाँ हाएल न हो !
ये सियाह पैकर बरहना राह-रौ
ये घरों में ख़ूब-सूरत औरतों का ज़हर-ए-ख़ंद
ये गुज़र-गाहों पे देव-आसा जवाँ
जिन की आँखों में गरसना आरज़ुओं की लपक
मुश्तइल बे-बाक मज़दूरों का सैलाब-ए-अजी़म !
अर्ज़-ए-मश्रिक एक मुबहम ख़ौफ़ से लर्ज़ां हूँ मैं
आज हम को जिन तमन्नओं की हुर्मत के सबब
दुश्मनों का सामना मग्रिब के मैदानों में है
उन का मश्रिक में निशां तक भी नहीं !