एक अजनबी से प्यार कर मैं अजनबी बनकर रहा
साँस जिसने छीन ली वो ही जिंदगी बनकर रहा
झूम उठा उसे सोचकर उसे देखकर मै खिल पड़ा
मैं कोई प्यासा वो मेरी मयकसी बनकर रहा
जिस तरफ भी वो गया मैं उधर ही चल पड़ा
है चितेरा वो कोई मैं मुसव्वीरी बनकर रहा
उसकी खातिर दीप सा जलता रहा मैं उम्रभर
उसको खोकर अब तो मैं भी तीरगी बनकर रहा
चाह पाने की उसे कबसे लिए बैठा "पथिक"
मैं मुसाफिर रेत का वो तिश्नगी बनकर रहा