बहुत सुरक्षित था
मां की कोख में उसका अंकुरण,
पर सबके लिए
उपेक्षित विकासमान बीज ही तो थी वो,
अभी पनपा नहीं था मुखमंडल,
अल्प विकसित- सी थीं
अभी उंगलियाँ भी,
बंद-बंद सी थीं अभी चक्षु-रेखाएँ,
पर था स्पंदन हृदय में,
कई बार बतियाता था मां से
उसके तलवे का स्पर्श,
कभी उधम मचाती, तो कभी
रूठ कर कोख के
किसी कोने में सिमट जाती वो
पर अब
किसी लौह अजगर ने
परख लिया है
उसका स्त्रीत्व,
अब कहाँ नसीब उसे
नानी की लोरियाँ,
कैसे वो थामेगी अब
दादा जी की थरथराती उंगलियाँ,
छुपेगी कैसे वो मां के आँचल में,
कैसे वो अब चढ़ पिता की पीठ पर
करेगी ‘जय कन्हैया लाल की’ उद्घोषणा!
अब कहाँ वो बन पायेगी
परिवार का हौसला,
अब यह लौह-भुजंग जकड़ लेगा उसे
अपने ही भुजंग-पाश में,
और मां की कोख में ही
दफन हो जायेगी अभागी अजन्मी,
अब तो भूमि पर वाले भगवान
उसे कच्चा चबा जायेंगे!